वाक्य

                     वाक्य

वक्ता द्वारा कही गई बात के अर्थ को पूर्ण रूप से स्पष्ट करने वाले शब्द समूह को वाक्य कहते हैं
     भाषा की सबसे छोटी इकाई वर्ण होती है और वर्णों के सार्थक समूह से शब्द निर्मित होते हैं तथा शब्दों के सार्थक समूह से वाक्य अर्थात अगर शब्दों के सार्थक क्रम को बदल दिया जाए तो वक्ता का अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो सकेगा

अर्थ के संप्रेषण की दृष्टि से भाषा की मूल इकाई वाक्य है संरचना की दृष्टि से पदों का सार्थक समूह ही वाक्य है
                         
                         वाक्य के अंग

मुक्तक वाक्य के दो अंग होते हैं
 1. उद्देश्य  
 2. विधेय

1. उद्देश्य :-
 वाक्य  में जिस के संबंध में कुछ कहा जाता है उसे उद्देश्य कहते हैं वाक्य में कर्ता और उसका विस्तार उद्देश्य के अंतर्गत आते हैं
 
 जैसे:-  राधा ने खाना बनाया
           राजू पुस्तक पढ़ रहा है

2. विधेय :- उद्देश्य अर्थात कर्ता के संबंध में  वाक्य में जो कुछ भी कहा जाता है वह विधेय होता है
 
जैसे -  राधा खाना बना रही है। 
        राजू पुस्तक पढ़ रहा है।


                    

वाच्य

                                                    वाच्य

क्रिया का वह रूप वाच्य कहलाता है जिससे मालूम हो कि वाक्य में प्रधानता किसकी है-कर्ता की, कर्म की या भाव की। इससे क्रिया का उद्देश्य ज्ञात होता है। 
 
अँग्रेज़ी में वाच्य को ‘Voice' कहते हैं। 

● वाच्य तीन प्रकार के होते हैं-

● वाच्य
1.कर्तृ वाच्य
2.कर्म वाच्य
3.भाव वाच्य

1. कर्तृ वाच्य-   जब वाक्य में प्रयुक्त क्रिया का सीधा और प्रधान संबंध कर्ता से होता है, उसे कर्तृवाच्य कहते हैं। इसमें क्रिया के लिंग, वचन कर्ता के अनुसार प्रयुक्त होते हैं। अर्थात् क्रिया का प्रधान विषय कर्ता है और क्रिया का प्रयोग कर्ता के अनुसार होगा।

 जैसे-
        -  मैं पुस्तक पढ़ता हूँ।
        -  विमला ने मेहँदी लगाई।
        -   तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की।


2. कर्मवाच्य- जब क्रिया का संबंध वाक्य में प्रयुक्त कर्म से होता है, उसे कर्म वाच्य कहते हैं।अतः क्रिया के लिंग, वचन कर्ता के अनुसार न होकर कर्म के अनुसार होते हैं। कर्मवाच्य सदैव सकर्मक क्रिया का ही होता है क्योंकि इसमें कर्म की प्रधानता होती है।
 
जैसे-
      -  दूध सीता के द्वारा पीया गया।
       - पत्र सीता के द्वारा लिखा गया।
       - मिठाई मनोज के द्वारा खाई गई।
       - चाय राम के द्वारा पी गई।
इन वाक्यों में 'पीया' और 'लिखा' क्रिया का एकवचन, पुल्लिंग रूप दूध व पत्र अर्थात् कर्म केअनुसार आया है। इसी प्रकार 'खा' व 'पी' एकवचन पुल्लिंग क्रिया 'मिठाई व चाय' कर्म पर आधारित है।


3. भाववाच्य-  

 क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात होता है कि कार्य का प्रमुख विषय भाव है, उसे भाववाच्य कहते हैं। यहाँ कर्ता या कर्म की नहीं क्रिया के अर्थ की प्रधानता होती है। इसमें अकर्मक क्रिया प्रयुक्त होती है। लिंग, वचन न कर्ता के अनुसार होते हैं न कर्म के अनुसार बल्कि सदैव एकवचन,पुल्लिंग एवं अन्य पुरुष में होते हैं।

जैसे :-
      1. राधा से सवेरे उठा नहीं जाता।
      3. मोहन से मिठाई खाई नहीं जाती।
      2. लड़कियां खो - खो खेल कर थक गई।

काल

                                 काल

* काल का अर्थ है समय ।
     क्रिया के जिस रूप से उसके होने का समय मालूम हो , उसे काल कहते हैं । काल के इस रूप से क्रिया की पूर्णता, अपूर्णता के साथ ही संपन्न होने के समय का बोध होता है।

* काल के तीन भेद हैं
1. भूतकाल
2. वर्तमान काल
3. भविष्य काल

(1) भूतकाल :- भूतकाल का अर्थ बीता हुआ समय।          वाक्य में जिस क्रिया रूप से बीते समय का होना          पाया जाता है वह भूतकाल कहलाता है।
            यह क्रिया व्यापार की समाप्ति बताने वाला            रूप होता है।
 
● भूतकाल के भेद
1. सामान्य भूतकाल - 
 उदाहरण-  प्रशांत ने गाना गाया।
                 बच्चे सो चुके थे।

2. संदिग्ध भूतकाल-
उदाहरण-  राधा ने खाना बना लिया होगा।
           -    चाय पंकज ने ही बनाई होगी         

3. हेतुहेतुमद भूतकाल-
 उदाहरण- आपने पढा़ई की होती तो उत्तीर्ण हो जाते।

4. आसन्न भूतकाल-
उदाहरण-  गाँव में साधु आए हैं।
             -  राकेश ने गाना गाया है।

5. पूर्ण भूतकाल- 
उदाहरण- भारत 1947 में स्वतंत्र हो गया था।

6. अपूर्ण भूतकाल-
 उदाहरण- सुमन खाना बना रही थी।
             - संगीता पुस्तक पढ़ती थी।


(2) वर्तमान काल :-
  क्रिया का वह रूप जिससे कार्य का वर्तमान समय में      होना पाया जाए उसे वर्तमान काल कहते हैं ।
  यह काल कार्य निरंतर हो रहा है की जानकारी देता है

● वर्तमान काल के भेद-

1. सामान्य वर्तमान काल -
उदाहरण- प्रशांत खेल रहा है।
            - राधा गीत गा रही है।

2. संभाव्य वर्तमान काल -
उदाहरण- गोलू परीक्षा देता होगा 

3. आज्ञार्थ वर्तमान काल -
उदा.  - अब मैं चलूँ ?
         - तुम अब भोजन कर लो।


(3) भविष्य काल 
- करीना के जिस रुप से यह ज्ञात होता है कि कार्य आने वाले समय में संपन्न होगा, उसे भविष्य काल कहते हैं

● भविष्य काल के भेद 
1. सामान्य भविष्य काल - 
उदा. - पूनम कविता लिखेगी ।
      - अंकित पुस्तक पढे़गा। 
       - लड़कियां खेलेंगी
      -  महिलाएं गीत गाएंँगी।

2. संभाव्य भविष्य काल -
उदा. - वे शायद अलवर जाएँ।
        - शायद आज बर्षा आए।
 
3. आज्ञार्थ भविष्य काल -
उदा. - तुम्हें आज बाजार जाना होगा





समास

समास शब्द का अर्थ - संक्षिप्त या छोटा करना है। दो या दो से अधिक शब्दों के मेल या संयोग को समास कहते हैं
 इस मेल में विभक्ति चिन्हों का लोप हो जाता है ।

*  समास का उद्भव ही समान अर्थ को कम से कम           शब्द में करने की प्रवृत्ति के कारण हुआ है

* दिन और रात शब्द में तीन शब्दों के प्रयोग के स्थान       पर 'दिन-रात ' समस्त शब्द किया जा सकता है।

* इस प्रकार दो या दो से अधिक शब्दों के मेल से     विभक्ति चिह्नों के लोप के कारण जो नवीन शब्द बनते    हैं उन्हें सामाजिक या समस्त पद कहते हैं

* सामासिक शब्दों का संबंध व्यक्त करने वाले विभक्ति     चिह्नों आदि के साथ प्रकट करने अथवा लिखनेवाली    रीति को 'विग्रह 'कहते हैं

 जैसे :- माता -पिता = माता और पिता 

* समस्त पद में मुख्यतः दो पद होते हैं 
 -'पूर्व पद 'व 'उत्तर पद' 
* पहले वाले पद को पूर्व पद व दूसरे वाले पद को उत्तर     पर कहते हैं

समस्त पद     पूर्वपद    उत्तरपद      समासविग्रह

 आजन्म        आ           जन्म             जन्म से लेकर
 यथासंभव      यथा        संभव           जैसा संभव हो


                      समास के भेद 

★ मुख्यतः समास के चार भेद होते हैं । 

● जिस समास में पहला शब्द प्रायः प्रधान होता है उसे        अव्ययीभाव समास कहते हैं। 
● जिस समास में दूसरा शब्द प्रधान रहता है उसे               तत्पुरुष समास कहते हैं ।
● जिसमें दोनों शब्द प्रधान होते हैं वह द्वंद समास              कहलाता है। 
● जिस में कोई भी शब्द प्रधान नहीं होता उसे                   बहुव्रीहि समास कहते हैं।

★ तत्पुरुष के पुनः दो अतिरिक्त भेद स्वीकार किए गए     हैं 'कर्मधारय समास' एवं 'द्विगु समास' इस प्रकार           विवेचन की सुविधा के लिए हम समास का निम्न           छह प्रकारों के अंतर्गत अध्ययन करेंगे।


           1.  अव्ययीभाव समास

* अव्ययीभाव समास का पहला पद प्रधान होता है           इसमें पहला पद अव्यय होता हैं 

उदाहरण :-   

समस्त पद        विग्रह

आजन्म            जन्म से लेकर
आमरण            मरण तक 
प्रतिक्षण           हर क्षण
भरपेट              पेट भरकर
यथाशक्ति         शक्ति के अनुसार 
यथासमय         समय के अनुसार
यथासंभव         जैसा संभव हो 
आजीवन          जीवन भर 
भरपेट              पेट भर कर 
आजन्म            जन्म से लेकर 
आमरण            मरण तक 
प्रतिदिन।           हर दिन 
बेखबर              बिना खबर के

*  हिंदी के कुछ संज्ञा शब्दों को दो बार प्रयोग करके          अव्यय शब्दों की तरह काम में लिया जाता है                इसलिए  वहाँ भी अव्ययीभाव समास होता है

जैसे :-   घर - घर  =  घर के बाद घर
             रातों रात  =  रात ही रात में


2.      तत्पुरुष समास 

* तत्पुरुष समास का पहला पद गांव में दूसरा पद प्रधान होता है इसमें कारक की विभक्ति चिह्नों का लोप हो जाता है  ( कर्ता कारक व संबोधन कारक को छोडकर) इसलिए छह  कारकों के आधार पर इस समास के भी छह भेद किए गए हैं

(क)  कर्म तत्पुरुष समास 
    ( इसमें 'को' विभक्ति चिह्न का  का लोप होता है)

समस्त पद     समास विग्रह

सर्वप्रिय         सभी को प्रिय 
यश प्राप्त       यश को प्राप्त
 ग्राम गत        ग्राम को गया हुआ
शरणागत      शरण को आया हुआ

(ख). करण तत्पुरुष समास 
( इसमें 'से' विभक्ति चिह्न का लोप होता है)

समस्त पद       समास विग्रह

भाव पूर्ण          भाव से पूर्ण 
हस्तलिखित       हस्त से लिखित 
बाढ़पीड़ित        बाढ़ से पीड़ित 
बाणाहत            बाण से आहत

(ग) संम्प्रदाय तत्पपुरुष
 ( इसमें 'के लिए' विभक्ति चिह्न का लोप होताहै)

समस्त पद              समास विग्रह

गुरुदक्षिणा            गुरु के लिए दक्षिणा
 बालामृत               बालकों के लिए अमृत 
युद्ध भूमि               युद्ध के लिए भूमि 
विद्यालय                विद्या के लिए आलय 
राह खर्च                 राह के लिए खर्च


(घ)  अपादान तत्पुरुष समास 
  ( इसमें 'से' विभक्ति चिह्न पृथक या अलग के लिए का      लोप होता है )

 समस्त पद          समास विग्रह

 देश निकाला        देश से निकाला 
बंधन मुक्त            बंधन से मुक्त
 पथभ्रष्ट               पथ से भ्रष्ट
 ऋण मुक्त।           ऋण से मुक्त

(ड)  संबंध तत्पपुरुष समास 
  ( इसमें 'का' 'के' 'की'  विभक्ति चिह्नों का लोप होता है)
 
समस्त पद           समास विग्रह

राजमाता           राजा की माता 
जलधारा            जल की धारा 
नगर सेठ             नगर का सेठ 
मतदाता             मत का दाता
गंगाजल             गंगा काजल




(च).    अधिकरण तत्पुरुष समास 
( इसमें 'में'  'पर' चिह्नों का लोप होता है)

समस्त पद       समास विग्रह

 आप बीती           आप पर बीती 
 सिर दर्द               सिर में दर्द 
 घुड़सवार             घोड़े पर सवार
 जलमग्न              जल में मगन


            3.    कर्मधारय समास

कर्मधारय समास में पहले तथा दूसरे पद में विशेषण विशेष्य अथवा उपमान - उपमेय का संबंध होता है

जैसे:-
 समस्त पद                  विग्रह

महापुरुष              महान है जो पुरुष
पीतांबर                पीला है जो अंबर 
प्राण प्रिय             प्रिय है जो प्राणों को 
चंद्र वदन              चंद्रमा के समान वदन 
कमल नयन          कमल के समान नेत्र वाली 
विद्याधन               विद्या रूपी धन 
भवसागर              भव रूपी सागर
मृगनयनी              मृग के समान नेत्र वाले



                   4.  द्विगु समास


द्विगु समास का पहला पद संख्यावाचक अर्थात गणना बोधक होता है तथा दूसरा पद प्रधान होता है क्योंकि इसमें बहुधा यह जाना जाता है कि इतनी वस्तुओं का समूह है

जैसे :-
 समस्त पद                विग्रह
 
सप्ताह        ..         सात अहतों का समूह
 त्रिमूर्ति        ..          तीन मूर्तियों का समूह 
 नवरत्न        ..         नवरत्नों का समूह 
 शताब्दी       ..          सौ अब्दों ( सालों)का समूह
 त्रिभुज         ..         तीन भुजाओं का समूह 
 पंच रात्र       ..         पाँच रात्रियों का समाहार


● कुछ समस्त पदों के अंत में संख्या वाचक शब्दांश       आता है 

पक्षद्वय                 दो पक्षों का समूह 
लेखकद्वय             दो लेखकों का समूह
संकलन त्रय           तीन संकलनो का समूह   

 
                   5.   द्वन्द्व समास 


द्वंद समास में दोनों पद प्रधान होते हैं इसके दोनों पद योजक चिह्न द्वारा जुड़े होते हैं तथा समास विग्रह करने पर 'और' 'या' 'अथवा' 'एवं' आदि शब्द लगते हैं

जैसे:-
 समस्त पद                  विग्रह

 रात- दिन                 रात और दिन 
सीता- राम                सीता और राम 
दाल- रोटी                 दाल और रोटी
माता -पिता               माता और पिता
आयात- निर्यात         आयात और निर्यात
हानि -लाभ               हानि या लाभ
आना -जाना              आना और जाना


               6.  बहुब्रीहि समास 

* जिस समास में पूर्व पद व उत्तर प्रदेश दोनों ही गुणों और अन्य पद प्रधान हो और उसके शाब्दिक अर्थ को छोड़कर एक नया अर्थ निकाला जाता है वह बहुव्रीहि समास कहलाता है ,जैसे- लंबोदर अर्थात लंबा है उदर (पेट) जिसका (दोनों पदों का अर्थ प्रधान ने होकर अन्य अर्थ गणेश प्रधान है)

समस्त पद           विग्रह

घनश्याम     ..     घन जैसा श्याम अर्थात कृष्ण 
नीलकंठ    ..         नीला कंठ है जिसका अर्थात शिव दशानन     ..     दश आनन है जिसके अर्थात रावण गजानन  ..    गज के समान आनन वालाअर्थात गणेश 
त्रिलोचन   ..   तीन है लोचन जिसके अर्थात शिव
हंस वाहिनी   ..  हंस है वाहन जिसका अर्थात सरस्वती महावीर    ..      महान है वीर अर्थात हनुमान 
दिगंबर      ..    दिशा ही है अंबर जिसका अर्थात शिव चतुर्भुज     ..    चार भुजाएं हैं जिसके अर्थात विष्णु









संधि

संधि का शाब्दिक अर्थ है-योग अथवा मेल अर्थात् दो ध्वनियों या दो वर्णों के मेल से होने वाले विकार को ही संधि कहते हैं।

परिभाषा- जब दो वर्ण पास-पास आते हैं या मिलते हैं तो उनमें विकार उत्पन्न होता है अर्थात्
वर्ण में परिवर्तन हो जाता है। यह विकार युक्त मेल ही संधि कहलाता है।

कामताप्रसाद गुरु के अनुसार, 'दो निर्दिष्ट अक्षरों के आस-पास आने के कारण उनके मेल से जो विकार होता है, उसे संधि कहते हैं।'

श्री किशोरीदास वाजपेयी के अनुसार, 'जब दो या अधिक वर्ण पास-पास आते हैं तो कभी-कभी उनमें रूपांतर हो जाता है। इसी रूपांतर को संधि कहते हैं।'

संधि-विच्छेद- वर्णों के मेल से उत्पन्न ध्वनि परिवर्तन को ही संधि कहते हैं। परिणामस्वरूप उच्चारण एवं लेखन दोनों ही स्तरों पर अपने मूल रूप से भिन्नता आ जाती है। अतः उन वर्णों/ध्वनियों को पुनः मूल रूप में लाना ही संधि विच्छेद कहलाता है,

 जैसे-  महा + ईश = महेश
यहाँ (आ + ई) दो वर्णों के मेल से विकार स्वरूप 'ए' ध्वनि उत्पन्न हुई और संधि का जन्म हुआ

संधि विच्छेद के लिए पुनः मूल रूप में लिखना होगा।

           संधि युक्त शब्द      संधि विच्छेद
जैसे-           महेश              महा + ईश
              मनोबल                 मनः + बल

संधि के तीन भेद हैं

1.स्वर संधि
2.व्यंजन संधि
3.विसर्ग संधि

(1) स्वर संधि-दो स्वरों के मेल से उत्पन्न विकार स्वर संधि   कहलाता है। 

स्वर संधि के पाँच भेद हैं-

1.दीर्घ स्वर संधि :- दीर्घ संधि में दो समान स्वर मिलकर दीर्घ हो जाते हैं। यदि अ, आ ,इ, ई, उ ,ऊ, के बाद ये ही लघु या दीर्घ स्वर आएँ तो दोनों मिलकर क्रमशः आ, ई, ऊ हो जाते हैं 

उदाहरण :- 
   अ + अ  = आ      जल  + अभाव = जलाभाव
   अ + आ = आ     भोजन + आलय = भोजनालय  
   आ + अ = आ      विद्या + अर्थी    = विद्यार्थी
   आ + आ = आ       महा + आत्मा  = महात्मा
 
   इ + इ = ई     गिरी + इन्द्र = गिरीन्द्र
   ई + इ = ई    मही + इन्द्र = महीन्द्र
   इ + ई = ई     गिरि + ईश = गिरीश
   ई + ई = ई      रजनी + ईश = रजनीश

  उ + उ = ऊ      भानु + उदय = भानूदय
 उ + ऊ =           लघु + ऊर्मि = लघूर्मि
ऊ + उ = ऊ       वधू + उत्सव = वधूत्सव
 ऊ + ऊ = ऊ।     भू + ऊर्जा = भूर्जा

2. गुण संधि
यदि 'अ' या 'आ' के बाद' इ' या 'ई' ,'उ' या 'ऊ', 'ऋ' आएँ तो दोनों मिलकर क्रमशः ' ए' 'ओ' और 'अर्' हो जाते हैं 
जैसे:-
 आ+ इ = ए         देव + इंद्र = देवेंद्र
 अ +ई= ए           गण + ईश = गणेश
 आ +इ = ए        यथा + इष्ट = यथेष्ट
 आ + ई = ए        रमा + ईश = रमेश 

अ+उ = ओ          वीर + उचित =वीरोचित
अ+ऊ= ओ।         जल + ऊर्मि = जलोर्मि
आ + उ = ओ        महा + उत्सव =महोत्सव
आ + ऊ = ओ        गंगा + ऊर्मि = गंगोर्मि

अ+ ऋ = अर्       कण्व + ऋषि = कण्वर्षि
आ+ ऋ =अर्       महा + ऋषि = महर्षि


3. वृद्धि संधि

जब 'अ' या 'आ' के बाद 'ए' या 'ऐ' आए तो दोनों मिलकर 'ऐ' तथा 'ओ' या 'औ' हो तो दोनों के स्थान पर 'औ' हो जाता है 

जैसे :- 
अ + ए = ऐ          एक + एक = एकैक 
अ+ ऐ = ऐ         परम+  ऐश्वर्य=  परमैश्वर्य
आ +ए = ऐ         सदा + एव=  सदैव 
आ +ऐ =  ऐ         महा +ऐश्वर्य = महैश्वर्य

अ+ओ= औ         परम  + ओज   = परमौज 
आ+ओ=औ         महा  + ओजस्वी =  महौजस्वी
अ+औ=औ           वन+ औषधि    =   वनौषधि
आ+औ=औ            महा   औषधि = महौषधि

4. यण संधि

यदि 'इ' या 'ई' ' उ' या 'ऊ'  तथा 'ऋ' के बाद कोई भिन्न स्वर आ जाए तो 'इ'  'ई' का 'य्'   'उ' 'ऊ' का 'व्'  तथा 'ऋ' का 'र् ' हो जाता है 

जैसे :-

 इ+ अ = य     अति  + अधिक  = अत्यधिक 
 ई+आ = या     इति  + आदि  =  इत्यादि 
 इ+आ = या     नदी  + आगम = नद्यागम 
  इ+उ = यू      अति  + उत्तम = अत्युत्तम 
  इ+ऊ = यु      अति। +  ऊष्म  = अत्यूष्म
  इ+ए = ये        प्रति + एक  = प्रत्येक      

उ + अ = व      सु  + अच्छ  = स्वच्छ 
उ+आ = वा    सु +  आगत  = स्वागत 
उ+ए =वे        अनु  + ऐषण  अन्वेषण 
उ+इ = वि       अनु + इति। = अन्विति 

ऋ + आ = रा    पितृ। + आज्ञा = पित्राज्ञा

5. अयादि संधि

यदि 'ए' या 'ऐ' 'ओ' या 'औ' के बाद कोई भिन्न स्वर आ जाए  तो 'ए' का 'अय्' 'ऐ' का 'आय्' हो जाता है तथा 'ओ' का 'अव्' और 'औ' का 'आव्' हो जाता है

 जैसे :-
 ए + अ  = अय्          ने + अन = नयन
 ऐ + अ  =आय्          नै  + अक = नायक
ओ + क =अव्           पो + अन = पवन
औ + अ  =आव्         पौ + अक  = पावक



व्यंजन संधि

इस संधि में एक व्यंजन का  किसी दूसरे व्यंजन के साथ अथवा स्वर के साथ मेल होने  पर जो विकार उत्पन्न होता है  उस विकार को व्यंजन संधि कहते हैं 

व्यंजन संधि के प्रमुख नियम

1. यदि प्रत्येक वर्ग के पहले वर्ण  ( क् ,च् ,ट् ,त् ,प् )  के बाद किसी वर्ग का तृतीय  या चतुर्थ वर्ण  अथवा य र ल व या कोई  स्वर आए तो  क् च् ट् त् प् के स्थान पर  अपने वर्ग का तीसरा वर्ण ( ग् ज् ड् द् ब् )  हो जाता है 

जैसे :-
 वाक्  +  ईश    =     वागीश 
 दिक्  + गज     =     दिग्गज 
  वाक् + दान     =     वाग्दान 
 सत्  + वामी     =    सद्वाणी 
अच्  + अंत      =     अजंत 
अप्  +  इंधन    =     अबिंधन
तत् + रूप        =      तद्रूप
जगत् + आनंद  =      जगदानंद
शप् +  द          =      शब्द


2. यदि प्रत्येक वर्ग के पहले वर्ण  क्  च् ट् त्  प् के बाद 'न' या 'म' आए तो क् च् ट् त् प्  अपने वर्ग के पंचम वर्ण ङ् ञ् ण् न् म्  में बदल जाते हैं।

उदाहरण :- 
  वाक्     +    मय   =   वाङ्मय
  षट्       +   मास    =  षण्मास
 जगत्     +   नाथ    =  जगन्नाथ
 अप्       +    मय    =  अम्मय


3. यदि 'म्' के बाद कोई स्पर्श व्यंजन आए तो 'म्' वर्ण में जुड़ने वाले वर्ण के प्रत्येक वर्ग का पंचम वर्ण या अनुस्वार हो जाता है

उदाहरण:-
 अहम्  +    कार  =  अहंकार 
  किम्  +    चित्  =  किंचित्
 सम्     +    गम   =    संगम 
 सम्     +    तोष  =   संतोष

अपवाद 
         सम् + कृत  = संस्कृत 
         सम् + कृति = संस्कृति


 4.  यदि मैं के बाद य र ल व श ष स ह में से किसी भी वर्ण का मेल हो तो  'म' के स्थान पर अनुस्वार ही लगेगा
जैसे -
सम्  + योग      =   संयोग
 सम् +  रचना   =    संरचना
सम्  +   वाद     =   संवाद
 सम् + हार       =   संहार 
सम्  + रक्षण     =  संरक्षण
सम्  + लग्न।    =  संलग्न 
सम्  + वत्       =  संवत्
सम्  + सार।     = संसार

5. यदि त् या द् के बाद ल आए तो 'त्' 'द्'  ल्  में बदल जाता है 

जैसे -  उत्  +  लास  = उल्लास
          उद् + लेख    =  उल्लेख

6.  यदि 'त्' 'द्' के बाद  'ज' 'झ'  हो तो 'त्' 'द्'  ज् में बदल जाएंगे
 जैसे -   सत्  + जन   = सज्जन
           उद्  + झटिका = उज्झटिका

7. यदि त् द्  के बाद  'श'  हो तो त् द्  का च् और श्         का  छ् हो जाता है 

जैसे - उद्  + श्वास  = उच्छ् वास 
        उद्  +  शिष्ट  =  उच्छिष्ट
         सत्  + शास्त्र   =  सच्छास्त्र

8. यदि त् द्  के बाद  'च' , 'छ'  हो तो  त् द्  का च् हो          जाता है 

जैसे :-  उद्  + चारण = उच्चारण
           सत् + चरित्र  = सच्चरित्र
9.  त् या  द् के बाद यदि  'ह' हो तो त् /द्  के स्थान पर     द्  और 'ह' के स्थान पर  'ध' हो जाता है 

जैसे :-  तद् + हित = तद्धित 
           उद् + हार =  उद्धार

10. जब पहले पद के अंत में स्वर्ग हो और आगे के पद का पहला वर्ण 'छ' हो तो 'छ' के स्थान  'च्छ' हो जाता है

जैसे :-  अनु  + छेद  = अनुच्छेद
          परी + छेद   =परिच्छेद 
          आ + छादन = अच्छादन
11. यदि किसी शब्द के अंत में 'अ' या 'आ' को छोड़कर कोई अन्य स्वर आए एवं दूसरे शब्द के आरंभ में 'स' हो तो 'स' के स्थान पर 'ष' हो जाता है

जैसे :- अभी + शेख  = अभिषेक
          वि   +  सम  = विषम 
          नि +  सिद्ध = निषिद्ध
          सु  +   सुप्ति  =सुषुप्ति

12. 'ऋ' 'र' 'ष' के बाद जब कोई स्वर अथवा 'क' वर्गीय या 'प' वर्गीय वर्ण अनुस्वार अथवा 'य' 'व' में से कोई वर्ण आए तो अंत में आने वाला 'न' 'ण' हो जाता है

जैसे :- भर् + अन =    भरण 
          भूष् +  अन = भूषण 
          राम  +  अयन =  रामायण
            प्र  +  मान  = प्रमाण





3. विसर्ग संधि

विसर्ग (: )के साथ स्वर या व्यंजन के मेल में जो विकार होता है उसे विसर्ग  संधि कहते हैं

यदि किसी शब्द के अंत में विसर्ग ध्वनि आती है तथा उसमें बाद में आने वाले शब्द के स्वर अथवा व्यंजन का मेल होने के कारण जो ध्वनि विकार उत्पन्न होता है वही विसर्ग संधि है 
 
विसर्ग संधि के प्रमुख नियम
1. यदि  विसर्ग (: )के पूर्व 'अ ' हो और बाद में 'अ'हो तो दोनों का विकार 'ओ '  हो जाता है

जैसे :- मनः+ विराम  =मनोविराम 
           यश :+अभिलाषा  =यशोभिलासा 
           मनः+ अनुकूल = मनोनुकूल

2. यदि विसर्ग  के पहले 'अ 'हो तथा बाद में किसी भी वर्ग का तीसरा चौथ वर्ण अथवा  यह य, र ,ल ,व वर्ण आते हैं तो विसर्ग 'ओ ' में बदल जाता है
 जैसे -  तपः +  वन =  तपोवन
           अधः + गामी  = अधोगामी 
          वयः+  वृद्ध = वयोवृद्ध
          मनः +   विज्ञान   = मनोविज्ञान
        
3. यदि विसर्ग(:) के बाद 'अ' के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर अथवा किसी वर्ग का तृतीय चतुर्थ या पंचम वर्ण  या  य , र , ल , व  हो तो विसर्ग के स्थान में ,र्, हो जाता है

जैसे:-   आयुः +  वेद  = आयुर्वेद 
       ज्योति ः + मय    = ज्योतिर्मय
      आशीः +  वचन  = आशीर्वचन
        धनुः  + धारी   = धनुर्धारी 

4. यदि विसर्ग (:) के बाद 'च' या तालव्य 'श' आता है तो विसर्ग (:)' श् ' हो जाता है
 
जैसे :-  पुनः +  च  = पुनश्च
          तपः  + चर्या =  तपश्चर्या
         यशः + शरीर  =  यशश्शरीर

5. यदि विसर्ग (:) के पहले  अ या  आ तथा बाद में त       या दंत्य  'स' आता है तो विसर्ग (:)  ' स् ' हो जाता है

 जैसे :-   नमः + ते  = नमस्ते 
            मनः+  ताप  = मनस्ताप 
             पुरः + सर =  पुरस्सर


6.  यदि विसर्ग (: ) के पहले ' इ' या ' उ ' स्वर हो और उसके बाद ' क' 'ख' 'प' 'फ' वर्ण आए तो विसर्ग (:) मूर्धन्य ' ष् ' जाता है
 
जैसे :-  आविः  + कार = आविष्कार 
           चतुः +  पाद  = चतुष्पाद 
          चतुः + पथ  = चतुष्पथ
          बहिः +  कार  = बहिष्कार

रस के अवयव

रसावयव
रस के चार अवयव होते हैं-
1. स्थायी भाव
2. विभाव
3.अनुभाव
4. संचारी भाव

स्थायीभाव
प्रत्येक रस में एक प्रधान गुण या मनोविकार होता है जिसके जाग्रत होकर परिपक्व होने से रस का अनुभव होता है।
यह रस अनुभव काल के आरंम्भ से लेकर अन्त तक बना रहता है। इसे स्थायीभाव कहते हैं।

क्र. सं.           रस का नाम।          स्थायी भाव
1.                     शृंगार               रति (प्रेम)
2.                     हास्य                हास
3.                     करूण              शोक
4.                     वीर                  उत्साह
5.                     रौद्र                  क्रोध
6.                     भयानक           भय
7.                     वीभत्स             जुगुप्सा
8.                     अद्भुत               विस्मय
9.                     शांत                 शम(शान्ति)
10.                   वत्सल              वात्सल्य(स्नेह)
11.                  भक्ति                 ईश्वर विषयक प्रेम
स्थायी भाव सहृदय सामाजिक के हृदय में वासना रूप में जन्मजात स्थित वे अनुभूतियां हैं जो स्थायी रूप से विद्यमान रहती हैं।
ये अनुभूतियां सभी में पायी जाती हैं जो यथा स्थिति एवं यथास्थान जाग्रत एवं सुषुप्त होती रहती हैं। ये अनुभूतियां अन्य अनुभूतियों की तुलना में अधिक तीव्र गतिशील एवं सूक्ष्म होती है। इन वृत्तियों का आधार अहंकार की दो मुख्य वृत्तियाँ हैं

राग सुखात्मक प्रकृति की होती है।
द्वेष - दुःखात्मक प्रकृति की होती है।


विभाव----विभाव का अर्थ है कारण।
प्रत्येक रस के प्रधान गुण या मनोविकार के जाग्रत या उद्दीप्त होने के कारणों को विभाव कहते हैं। स्थायी भावों को उद्बोधित करने वाले कारण विभाव कहलाते हैं।
ये ही ये ही स्थायी भावों का विभावन करते हैं अर्थात् आस्वाद योग्य बनाते हैं। अतः विभाव रस की उत्पत्ति के कारणभूत है।

विभाव के भेद
1. आलम्बन विभाव
2. उद्दीपन विभाव

आलम्बन विभाव

जिसके आधार पर अर्थात् जिसको देखकर, जिसको सुनकर रस का गुण या मनोविकार जाग्रत हो उसे आलंबन कहते हैं। भावों का उद्गम जिस मुख्य पात्र या के कारण होता है वह आलम्बन कहा जाता है। भावों को जाग्रत करने वाले ये
ही कारण होते हैं।


शृंगार रस में--       प्रेम पात्र (स्त्री या पुरुष विपरीत लिंगी)
हास्य रस में          जिसे देखकर हँसी आए
रौद्र रस                शत्रु
वत्सल रस में        (विदूषक)
भक्ति रस में           प्रभु आलंबन है।


काव्य नाटकादि में वर्णित जिन पात्रों का आलंबन करके सामाजिक के हृदय में स्थित रति आदि स्थायी भाव रस रूप में अभिव्यक्त होते हैं, उन्हें आलम्बन विभाव कहते हैं।


आलम्बन विभाव के भेद
1. विषय
2. आश्रय 

(जिस पात्र के प्रति किसी पात्र के भाव जाग्रत होते हैं, वह विषय है।)
(पुष्प वाटिका के प्रसंग में सीता को देखकर सीता के प्रति राम के हृदय में प्रेमभाव जाग्रत हुआ। राम यहाँ आश्रय है)

ये विषय और आश्रय हृदय
सहृदय के स्थायी भावों को रसावस्था तक पहुँचाने के कारण होने के आलम्बन विभावहै।


उद्दीपन विभाव

स्थायी भावों को उद्दीप्त करने वाली (अर्थात् उसकी आस्वाद योग्यता बढ़ाने वाली)
देशकालिक परिस्थिति अथवा आलम्बन की चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जाता है।
उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत बाहरी परिस्थितियाँ तथा आलम्बन की चेष्टाएं आती
हैं। जैसे शृंगार रस में उद्दीपन विभाव में चाँदनी रात, एकान्त, मधुर संगीत,
नायक-नायिका की वेशभूषा, शारीरिक चेष्टाएँ आदि आते हैं।

 3. अनुभाव

अनु का अर्थ है- पीछे। अर्थात स्थायी भाव के पश्चात् प्रकट होने वाले मनोविकार की चेष्टाएं अनुभाव कहलाती हैं।

किसी रस के गुण या मनोविकार जाग्रत होने पर उन्हें बाह्य चेष्टाओं द्वारा प्रकट किया जाता है। आश्रय की ऐसी शारीरिक चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं। ये चेष्टाएँ भाव जाग्रत के उपरान्त आश्रय में उत्पन्न होती है इसीलिए इन्हें अनुभाव कहा जाता है ।

जैसे प्रिय मिलन में रोमांच, अनुराग सहित देखना, अश्रु आना, विरह व्याकुल नायिका द्वारा रूदन, सिसकियां भरना, क्रोध जाग्रत होने पर शस्त्र चलाना, कठोर वाणी बोलना, आँखों का लाल होना आदि अनुभाव कहे जाते हैं।

अन्य अनुभाव हैं- मुस्कराना, (मुख का खिलना, प्रसन्न होना) रोना, निःश्वास लेना, भुजा फड़कना, हाँठ चबाना, काँपना, स्तम्भित हो जाना, एकटक देखना, मुख पीला पड़ना, आवाज काँपना, जम्हाई आना, शरीर की सुधि न रहना आदि।

अनुभाव के भेद

1. आंगिक या कायिक अनुभाव
3. आहार्य अनुभाव
2. वाचिक अनुभाव
4. सात्विक अनुभाव

1. आंगिक अनुभाव (आश्रय की शारीरिक चेष्टाएँ)

आंगिक अनुभाव को कायिक अनुभाव भी कहा जाता है। आंगिक अनुभाव देह संबंधी होते हैं। आश्रय की शरीर सम्बन्धी चेष्टाएँ कायिक या आंगिक अनुभाव कही जातीहैं, 

जैसे-रति भाव जाग्रत होने पर भू विक्षेप, कटाक्ष आदि।
(आंगिक अनुभाव में शरीर सम्बन्धी चेष्टाएँ होती हैं, इन्हें चाहने पर नियंत्रित भी की जा सकती हैं )

जैसे क्रोध-स्थायी भाव के जाग्रत होने पर हाथ पैर चलाना, (आंगिक अनुभाव है जिन्हें चाहने पर रोका भी जा सकता है।)

बहुरि बदन बिधु अचल ढाँकी
पियतन चितै भौंह करि बाँकी
खजन मंजु तिरीछे नैननि
निज पति कहेउ तिनहिं सिय सैननि
                   (ग्राम वधुओं के प्रश्न के उत्तर में)
सीता द्वारा अपने मुख को अँचल से ढकना, भौंहे टेढी कर के प्रियतम राम की ओर देखना, सीता (आश्रय) की वे शारीरिक चेष्टाएं हैं जो राम (आलम्बन) के प्रतिउसके हृदय में स्थित प्रेम (रति) स्थायी भाव का ज्ञान कराती हैं। अतः ये कायिक
अनुभाव हैं।

2. वाचिक अनुभाव
     प्रयत्न पूर्वक वाणी का व्यापार 
- आश्रय के वाग्व्यापार को वाचिक अनुभाव कहते हैं । 
  वाग्व्यापार यानि बोलना । ये प्रयत्न पूर्वक भी किया जा       सकता है और चाहने पर इस पर नियंत्रण भी किया जा     सकता है।

 उदाहरण :- 
    बतरस लालच लाल की मुरली धयी लुकाय 
    सौंह करै, भौंहनि हसैं दैन कहै नटि जाय।
(यहाँ सौह करना , देने के लिए कहना , मना करना वाचिक अनुभाव है।)

3. आहार्य अनुभाव ( आरोपित या कृत्रिम वेशभूषा)

 कृत्रिम वेश रचना को आहार्य अनुभाव कहते हैं।

जैसे प्रियतम से मिलने की उमंग से कोई प्रेमिका आकर्षक वेशभूषा आदि से अपने को सजाती है , उस वेशभूषा रचना को आहार्य अनुभाव कहते हैं।

4. सात्विक अनुभाव
 शरीर के अकृत्रिम अंग विकार को अर्थात आश्रय के किसी प्रकार के बिना यत्न के शारीरिक विकारों को सात्विक अनुभाव कहते हैं 
जैसे शरीर में कम्पन्न हो जाना , रोमांच हो जाना ,आँखों में आँसू आ जाना।

सात्विक अनुभाव आठ प्रकार के होते हैं 
1. स्तम्भ(अंगों का जडवत हो जाना)
2. स्वेद ( पसीना आ जाना)
3. रोमांच( रोगंटे खड़े हो जाना)
4. स्वर भंग ( आवाज न निकलना या टुटना , कुछ का कुछ बोलना )
5.वेपुथ ( काँपना )
6.वैवर्ण्य( मुँह पीला पड़ जाना, रंग उड़ जाना)
7.अश्रु( आँखों में आँसू आ जाना ) 
8.प्रलय(अचेत हो जाना , मूर्छित हो जाना)

4. संचारी भाव
संचरण करने वाले अस्थिर मनोविकारों या  चित्त वृत्तियों को संचारी भाव कहते हैं।

संचारी भावों की प्रकृति संचरण की होती है 
प्रत्येक रस के प्रधान गुण या मनोविकार के साथ साथ कई छोटे छोटे गुण या मनोविकार उत्पन्न होते है, जो प्रधान गुण या मनोविकार के परिपक्व होने में उसकी अनुभूति को और अधिक तीव्र बनाने में सहायक होते हैं और रस को अनुभव करने में सहायता करते हैं।
ये भाव स्थायी भावों की भाती समस्त रसानुभव काल में  स्थायी नहीं बने रहते किन्तु जाग्रत होकर एवं सहायता का कार्य पूरा कर करके तरंग की भाँति विलीन होते रहते हैं 
इन्हें संचारी भाव कहते हैं 

इनका दूसरा नाम व्यभिचारी भाव भी है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संचारी भावों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है

दुःखात्मक    सुखात्मक   उभयात्मक    उदासीन

लज्जा        औत्सुक्य    आवेग             विर्तक 
असूया       आशा         स्मृति             मति
त्रास            हर्ष            विस्मृति           श्रम
अमर्ष          गर्व            दैन्य                निद्रा
अवहित्था    संतोष        जड़ता            विबोध
विषाद        चपलता        स्वप्न
आलस्य      मृदुलता        चिंता
                  धैर्य             चंचलता
शंका           मद
चिंता
नैराश्य
उग्रता
मोह
उन्माद
असन्तोष
ग्लानि
अपस्मार
व्याधि
मरण


1. अमर्ष- 



मन्दाक्रान्ता छंद

लक्षण:-
1.  यह सम वर्ण छंद है।
2.  इसके प्रत्येक चरण में 17 वर्ण होते हैं
3.  इसमें गण क्रमशः मगण, भगण, नगण , तगण, तगण  और अंत में दो गुरु वर्ण आते हैं  । 
4. इसमें यति 4-6-7 वर्णो पर  होती है।

उदाहरण :-
   तारे डूबे ,तम टल गया , छा गयी व्योम में लाली